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हम संथाल

हमारे त्यौहार

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संथाल , ऐसा माना जाता है कि ये जनजाति भारत कि सबसे बड़ी जनजाति है  I  संथाल जाती के लोग मुखयतः झारखण्ड , ओडिशा , पश्चिम बंगाल और असम में में पाये जाते हैं  I  इसके अलावा छत्तीसगढ़ , बिहार में भी इनकी कुछ जनसँख्या है I  भारत के बाहर नेपाल और बांग्लादेश में भी संथाल पाये जाते हैं  I  

ज्यादातर संथाल जाती के लोग "सरना" धर्म को मानते हैं लेकिन क

संथाल , ऐसा माना जाता है कि ये जनजाति भारत कि सबसे बड़ी जनजाति है  I  संथाल जाती के लोग मुखयतः झारखण्ड , ओडिशा , पश्चिम बंगाल और असम में में पाये जाते हैं  I  इसके अलावा छत्तीसगढ़ , बिहार में भी इनकी कुछ जनसँख्या है I  भारत के बाहर नेपाल और बांग्लादेश में भी संथाल पाये जाते हैं  I  

ज्यादातर संथाल जाती के लोग "सरना" धर्म को मानते हैं लेकिन कुछ लोग ईसाई धर्म को भी मानते हैं  I  ईसाई धर्म मानने वाले संथाल असम में काफी जनसँख्या में हैं  I  

सरना संथाल "मारांग बुरु " और :जाहेर आयो " कि पूजा करते हैं  I  

अलग अलग प्रदेश के संथाल कि बोली में थोडा थोडा फर्क होता है  I  सब्दों के चयन और उच्चारण में भिन्नता होती है I   बुजुर्गों का मानना है कि ओडिशा के केओन्झार , कटक , मयूरभंज , बालेश्वर और झारखण्ड के पूर्वी सिंघभूम जिले के लोग शुद्ध संथाली बोलते हैं  I   `

हमारे त्यौहार

हमारे त्यौहार

हमारे त्यौहार

सोहराय 

- ये पर्व तो हमलोग तीन दिन मनाते हैं , १. पहले दिन नहाते हैं " उमूह आबो " . २.  दूसरे दिन खाना बनाते हैं " दाका याबो " ३.   और तीसरे दिन गायों को चराया जाता है  " खुंटव किया जाता है "  I

१ . लोग सुबह सुबह नहा कर ,  नहाने के बाद "गोट" बोंगा करते हैं  I ये पूजा गाँव के "नायके " द्वारा किया जाता है  I इसको विस्तार से समझते हैं  I  पहले

सोहराय 

- ये पर्व तो हमलोग तीन दिन मनाते हैं , १. पहले दिन नहाते हैं " उमूह आबो " . २.  दूसरे दिन खाना बनाते हैं " दाका याबो " ३.   और तीसरे दिन गायों को चराया जाता है  " खुंटव किया जाता है "  I

१ . लोग सुबह सुबह नहा कर ,  नहाने के बाद "गोट" बोंगा करते हैं  I ये पूजा गाँव के "नायके " द्वारा किया जाता है  I इसको विस्तार से समझते हैं  I  पहले एक अंडा को लिया जाता है और उसको सिंदूर लगाया जाता है , और बहुत सारे गाय को उनके ऊपर से गुजारा जाता है   I  गाय बहुत सारे लोगों के होते हैं और नियम के अनुसार जिस आदमी का गाय उस अंडे को अपने पावों से कुचल देता है उस आदमी  को  अगले साल "हंडी" देना पड़ता है  , क्यूंकि लोगों का ऐसा मानना रहता है कि जिस आदमी का गाय उस अंडे को कुचलता है उसका फसल अच्छा होगा  I  

२ . दूसरे दिन अपने अपने घरों को "गुरिज" किया जाता है ,  मतलब कि घर कि पुताई कि जाती है गोबर से ,  खाना बनाया जाता है , और साथ में हंडी भी बनाया जाता है और रात में गाय को "चुमरा" किया जाता है  I  चुमरा एक प्रकार कि गाय कि पूजा को भी कह सकते हैं  I  गावों के लोग एक गाँव से दूसरे गाँव रात में जाते हैं  ,  इसे "गय दारान " कहा जाता है  I  इस दौरान वो लोग नाचते गाते और बजाते हुए जाते हैं  I ऐसा वो लोग तिन बार करते हैं  I  

शाम में नायके के गाय  को  "खुंटव" किया जाता है उसके छटका (आँगन ) में  I  इसी दिन गाँव  के लोग कुछ सजावट भी करते हैं  जमीन पर I ये सजावट उनके "कुलहि" द्वार से ले कर "छटका " द्वार तक किया जाता है I     लिखावट और जमीन को सजाने के लिए एक घोल का प्रयोग किया जाता है जो कि मुखयतः चावल गुडी "होलोंग" और भिन्डी "भेडवा" के चिपचिपे पद्दार्थ से बनाया जाता है  I  कई लोग और दूसरा लेप भी प्रयोग करते हैं  I 

३. दूसरे दिन गाय सब को थोडा सा सजाया जाता है  I  उनकी पूजा कि जाती है और फिर उनको "खुंटव" किया जाता है  I  खुंटव एक ऐसी प्रथा है जिसमे गायों को एक लकड़ी के सहारे बाँध दिया जाता है और उनको पूजा भी कि जाती है और फिर एक पुरुष एक चमड़े के बड़े टुकड़े से हर एक गाय को "चराता " है  I इसके साथ साथ में "टामाक" और "तुमदाह"  को बजाते रहते हैं  I 

साकरात : 

साकरात  को भी हमलोग तीन दिन में बाँट सकते हैं .  १. पहला दिन "बाउंडी"  २. दूसरा दिन "सिंज साकरात" ३. और तीसरा दिन "आखान " . 

१. पहले दिन लोग "जिल पीठा " बनाते है और खाते हैं , साथ में "जिल लेटो " भी बनाया जाता है  I जिल का अर्थ "मांस" होता है  I अलग अलग घर के लोग अलग अलग मांस इस्तेमाल कर सकते हैं  I  ये उनके ऊपर है , जिनको जो पसंद है वो वही मांस  इस्तेमाल करता है  I नियम के हिसाब से इस दिन  मछली खाना  जरुरी होता है  I  "जिल पीठा " और " जिल लेटो " मुख्यतः दोपहर में खाया जाता है  I  और इसी दिन रात में लोग खाना खाते हैं "पातड़ा दाका " . I इसे नियम के अनुसार "पातड़ा"  में ही खाया जाना चाहिए क्यूंकि ऐसा माना जाता है कि खाने के बाद "मारांग बुरु " जो कि हम संथाल लोगों के भगवान हैं , "पातड़ा" गिनते हैं हर साल , ताकि इससे पता चले कि इस घर में कितने सदस्य हैं , और अगर अगले साल पातड़ा कम या ज्यादा हो जाता है तो "मारांग बुरु " को पता चल जाता है कि इस घर में आदमी कि मृत्यु हो गयी है या फिर किसी का जन्म हुआ है  I   और अगर हम नियम कि बात करें तो इसी रात को खाने में सबसे पहले "मछली" ही खाया जाता है और अंत में "तुड़ी"  I 

२. दूसरे दिन यानि कि सिंज साकरात के दिन बिलकुल सुबह में भोर होने से पहले "बूढी कुम्बा" जलाया जात है   I  ये कुम्बा पिछले रात को ही तैयार किया जाता है  I  इसे पुवाल और लकड़ी के ढेर से बनाया जाता है  I इसमें मुखयतः बच्चों कि बड़ी रूचि रहती है  I  वो लोग पहले तो नहाते है फिर उस जलते हुए कुम्बा के पास आग सेकते हैं  I  फिर जिनके परिवार वालों ने अपने बच्चों को नए कपडे खरीद कर दिए हैं वो बच्चे नए नए कपडे पहनते हैं  I  

इसी बीच घर के अन्य सदस्य "गुड पीठा " बनाने में लग जाते हैं  I  बच्चे आग सेख कर घर आते है तो उनके लिए "गुड पीठा " तैयार हो चूका होता है और वो बड़े ही चाव से खाते हैं  I 

गुड पीठा बनाने के बाद रीती के अनुसार एक मुर्गा को घर के बाहरी द्वार में हाथ से पकड़  कर उसे द्वार  ( दरवाजे )

में मारा जाता है ताकि उस मुर्गे का खून द्वार में लग जाए I 

और इसके बाद गाँव के लोग मझी के पास जाते हैं "बेझा" बनाने के लिए  I "बेझा" एक प्रकार का पेड़ का  डाल  होता है जो कि मुख्यतः केले के पेड़ का तना होता है , इसके अलावे दूसरे पेड़ को भी लोग इस्तेमाल में लाते हैं लेकिन बहुत कम  I  

फिर इस "बेझा" को कुछ दूर में गाड़ दिया जाता है और गाँव के पुरुष और बच्चे इस पर तीर धनुष से निशाना लगाते हैं  I अगर किसी ने पहले ही चक्र में निशाना  लगा  दिया तो उसी चक्र में ये कार्य समाप्त हो जाता है , और अगर नहीं तो इसे तीन चक्र तक इस कार्यक्रम को चलाना पड़ता है  I 

जिस वयक्ति ने भी निशाना सही लगाया या यूँ कहें जिसने भी उस "बेझा" को अपने तीर से भेद दिया उसे विजेता घोषित किया जाता है और उसे एक आदमी अपने कंधे पर उठाकर नायके के घर तक ले जाता है I 

३. तीसरे दिन को "आखान" के रूप में भी जाना जाता है  I  इस दिन गाय के शरीर पर दाग लगाया जाता है  I ये दाग जलते हुए आग के अंगारे और "दातरोम" से लगाया जाता है  I  इसे "शल दाग"  भी कहा जाता है  I  

फिर इसी दिन "गणी आसेन" का कार्यक्रम भी होता है I  ये एक ऐसी प्रथा है जिसमे कि गाँव के लोग अजीब सा वेसभूषा पहन कर जैसे तैसे कपडे पहन कर और हाथ में एक एक लकड़ी लेकर गाँव के हर घर घर में जाते हैं और चावल देने कि मांग करते हैं उनसे  I  फिर जितने भी चावल इकठ्ठा होते हैं बाद में वे लोग इसकी खिचड़ी बनाते हैं और खाते हैं  I 

इसमें और एक बात ध्यान देने कि बात ये है कि इस त्यौहार में लोग बहुत "हंडी" का सेवन करते हैं  I  हंडी संथाल लोगों का एक पारम्परिक पेय पद्दार्थ है I इसे चावल से बनाया जाता है I  हंडी बनाने कि विधि त्यौहार से पहले ही शुरू कर दी जाती है  I  इसमें दो तरह के हंडी का सेवन करते हैं लोग 

१. बाउंडी हंडी ( तुयु राः हंडी )

२. बोंग हंडी ( सिंज साकरात हंडी ).

बाहा   :

बाहा फागुन महीने में ही मनाया जाता है . पहले दिन लोग भूखे रहकर "जाहेर सरीम" को लगाते हैं , "ओड़ाह तोल "  किया जाता है केवल महिलावों के द्वारा इसके साथ घर कि साफ़ सफाई , गोबर से घर कि पुताई इत्यादि I 

फिर इसके बाद गाँव के लोग "नायके" के घर में इकठ्ठा हो जाते हैं , वहाँ उनके घर में तीर धनुष , "कपी"  , खैंची इत्यादि कि साफ़ सफाई कि जाती है . फिर गाँव का ही एक पुरुष "रूम" होता है  I  रूम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे एक पुरुष अपने सर को जोर जोर से हिलाता है , ऐसा माना जाता है कि इस प्रक्रिया के दौरान वह पुरुष भगवान् के संपर्क में होता है  I  इसलिए उससे पूछा जाता है कि क्या आप हमारे से खुश हैं , तो वह भगवन से संपर्क में होने के कारण उसकी तरफ से जवाब देता है . ऐसा माना जाता है  I 

फिर "नायके हड़ाम " और " नायके बूढ़ी"  को नया कपड़ा प्रदान किया जाता है  I  .

अगले दिन गाँव के लोग नायके के घर में जाते हैं  I   उन्हें जाहेर तक ले जाने के लिए जहाँ पर कि पूजा किया जाना है  I  सब सामान जैसे कि "कपी" , तीर धनुष , खैंची इत्यादि के साथ सब लोग जाहेर कि और प्रस्थान करते हैं . इस बीच वो लोग रास्ते में नाचते गाते भी हैं  I  एक अविवाहित पुरुष "सागेन सुपरी दाह " ( पानी ) को लेकर साथ में चलता है  I  फिर नाचते गाते ही सब जाहेर के अंदर दाखिल होते हैं  I  वहाँ तीन बार जाहेर का चक्कर लगाया जाता है  , फिर उसके बाद पूजा कि विधि आरम्भ कि जाती है I  

ऐसा माना जाता है कि "जाहेर आयो " के लिए एक "मुर्ग़े" कि बलि दी जाती है और "मारांग बुरु " के लिए एक लाल या सफ़ेद मुर्ग़े कि बलि दी जाती है  ,  और " मोड़े को - तुरुय को " के लिए कोई भी दूसरा मुर्ग़े कि बलि दी जाती है  I   

इसके बाद इन दोनों के लिए "बकरे" कि बलि भी दी जाती है  I   ध्यान रखने कि बात ये है कि इस पूजा में काले रंग के मुर्ग़े कि बलि नहीं दी जाती है  I  

इस पूजा होने के बाद इसी मांस से खिचड़ी बनायीं जाती है  I  ये सिर्फ पुरुषों के लिए होता है  I  

पूजा होने के बाद फिर नायके को वापस घर तक पहुंचा दिया जाता है  I 

इसके बाद दोपहर से बाहा नृत्य शुरू हो जाता है . इसमें पुरुष और महिला दोनों ही मिल कर पारम्परिक वेसभूषा में नाचते गाते हैं . अन्य गावों के लोग भी पुरे वेशभूषा में नाच गान करते हैं  I 

जहाँ बड़े पैमाने पर ऐसे कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं वहाँ पर रात में ड्रामा का भी आयोजन किया जाता है  I  ड्रामा मुखयतः १० - ११ बजे से शुरू होता है और सुबह ५ बजे के लगभग ख़तम हो जाता है  I  ड्रामा शुरू होने से पहले कुछ नाच गाना भी होता है मंच में . ड्रामा का मंच अस्थायी रूप से तैयार किया जाता है और ऊपर से इसे पूरी तरह स ढक दिया जाता है  I  इसके अंदर चेयर में भी बैठते हैं दर्सक और जमीन में भी I   

गोमहा :

गोमहा भी हमारा एक महत्वपूर्ण त्यौहार है . इस त्यौहार में "जिल पीठा" और "जिल लेटो " बनाया जाता है . " काराम डर " ( डाल )   को लगाया जाता है और उसकी पूजा कि जाती है  I इस दिन नाच गाना भी होता है और गाँव के  लोग "हंडी " का सेवन भी करते हैं  I

हमारे नृत्य

हमारे त्यौहार

हमारे नृत्य

संथाल के कई प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं , इनमे से ये कुछ प्रमुख हैं : 

१. लागणे ( किसी भी महीने में ये नृत्य किया जा सकता है ) 

२. दोंग  ( ये नृत्य मुख्यतः शादी ,और बच्चे के नामकारण के दौरान किया जाता है )

३. बाहा ( ये नृत्य केवल बाहा बोंगा के समय पर किया जाता है ) 

४ . डाहार एनेज ( ये नृत्य संथाली के "माग" महीने से लेकर "फागुन" महीने तक बाहा

संथाल के कई प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं , इनमे से ये कुछ प्रमुख हैं : 

१. लागणे ( किसी भी महीने में ये नृत्य किया जा सकता है ) 

२. दोंग  ( ये नृत्य मुख्यतः शादी ,और बच्चे के नामकारण के दौरान किया जाता है )

३. बाहा ( ये नृत्य केवल बाहा बोंगा के समय पर किया जाता है ) 

४ . डाहार एनेज ( ये नृत्य संथाली के "माग" महीने से लेकर "फागुन" महीने तक बाहा बोंगा तक किया जाता है )

५ . डांटा ( ये नृत्य केवल "सोहराय" के समय पर किया जाता है और इसमें केवल पुरुष ही शामिल होते हैं .

६ . रिंजा एनेज ( "गोमहा" पर्व के दौरान और इसमें भी केवल पुरुष ही शामिल होते हैं .

७ . दसांय ( इसमें भी महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता है . 

८ . गणी आसेन एनेज 

९. ढोगेर ( ये नृत्य तब किया जाता है जब लोग "सेंदरा" में किसी पहाड़ के बीच रह रहे होते हैं , रात में मुखयतः ये नाच किया जाता है ) 

१०. काराम एनेज .

११ . सारपा ( ये नृत्य मुखयतः पश्चिम बंगाल में ही किया जाता है )

निवेदन

हमारे त्यौहार

हमारे नृत्य

समय के साथ बदलाव बहुत जरुरी है , काफी चीज़ें हमारे समाज में बहुत अच्छी हैं और वो वैसी ही रहनी चाहिए , परन्तु कई सारी ऐसी भी परंपरा और सोच ऐसी है जो समय के साथ बदलना बहुत जरुरी है , वरना संथाल समाज का विकास होना काफी कठिन है . जनसँख्या घनत्व के हिसाब से हमारी जितनी विकास की गति होनी चाहिए उससे बहुत जयदा ही पीछे हैं हम . आपस में एकजुटता लाना

समय के साथ बदलाव बहुत जरुरी है , काफी चीज़ें हमारे समाज में बहुत अच्छी हैं और वो वैसी ही रहनी चाहिए , परन्तु कई सारी ऐसी भी परंपरा और सोच ऐसी है जो समय के साथ बदलना बहुत जरुरी है , वरना संथाल समाज का विकास होना काफी कठिन है . जनसँख्या घनत्व के हिसाब से हमारी जितनी विकास की गति होनी चाहिए उससे बहुत जयदा ही पीछे हैं हम . आपस में एकजुटता लाना , समाज के लोगों को आगे बढ़ाने के लिए मदद करना , शिक्षित लोगों की बातों को ध्यान से सुनना , लड़कियों और महिलाओं को भी उनके हक़ और इज्जत देना , हंडी का उपयोग केवल पूजा तक ही सिमित रखना , गावं का माहौल अच्छा बना कर रखना , बच्चों को सही सलाह और दिशा देना , पढ़ाई के लिए प्रेरित करना इत्यादि से ही हमारी विकास की दिशा तय होगी . कुछ रूढ़िवादी प्रथा को तोड़ना भी जरुरी हो गया है समय के साथ . यव सोच बदलनी होगी की " आबो दो सेदाय  नोंका गे दो " . समय के साथ सकारात्मक परिवार्ता बहुत जरुरी है .  निवेदन है की समाज में एकजुटता लायें और सशक्त बने .

धन्यवाद !! 

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